हम उनके दिल की धड़कन में तो रहते हे
पर उनके घर में कोई और बसता हे
ज़माने क रीत हे अजीब जो दो फूल खिले साथ साथ
खिलते ही मुकद्दर उनका माली तय करता हे
सीने में मोहब्बत तो पलती हैं
पर ये जो दिल तनहा है वो तड़पता है
दिल पर काबू पाने क कोसिस क बहुत
पर ये खमबख्त धडकना भी तो नहीं छोड़ता
Thursday, January 22, 2009
सुराख़
सुराख़
मेरी छत की दीवार पर
दो सुराख़ हैं.
जाने कितनी दफा
भर चुकी हूँ इन्हें,
पर हर बरस,
बरसात में,
उघड ही जाते हैं
और इनसे रीसता पानी
वक़्त-बेवक्त टपक
रुसवा कर जाता है,
सरेआम!
शुक्र है, ये बरसात
बारहों- मास् नहीं रहती!
पर इन दो सुराखों का क्या करुँ?
कैसे भरूँ इन्हें,
के तेरे दर्द की
नुमाइश ना हो?
इस ओर तो
मौसम भी नहीं बदलता!
और बदले भी कहाँ से?
मेरा तो आफताब भी
तू ही था.
तेरे बाद अब
किसके लगाऊं फेरें,
के दिन फिरें...?
'कुछ बदलेगा'
ये उम्मीद भी अब
बुझ चुकी.
बाकी है...तो बस,
यही दुआ
के 'अब के बरस
ये बरसात
मेरी साँसे भी बुझां दे
और ये सुराख
हमेशा हमेशा के लिए
बंद हो जाएँ....!!'
मेरी छत की दीवार पर
दो सुराख़ हैं.
जाने कितनी दफा
भर चुकी हूँ इन्हें,
पर हर बरस,
बरसात में,
उघड ही जाते हैं
और इनसे रीसता पानी
वक़्त-बेवक्त टपक
रुसवा कर जाता है,
सरेआम!
शुक्र है, ये बरसात
बारहों- मास् नहीं रहती!
पर इन दो सुराखों का क्या करुँ?
कैसे भरूँ इन्हें,
के तेरे दर्द की
नुमाइश ना हो?
इस ओर तो
मौसम भी नहीं बदलता!
और बदले भी कहाँ से?
मेरा तो आफताब भी
तू ही था.
तेरे बाद अब
किसके लगाऊं फेरें,
के दिन फिरें...?
'कुछ बदलेगा'
ये उम्मीद भी अब
बुझ चुकी.
बाकी है...तो बस,
यही दुआ
के 'अब के बरस
ये बरसात
मेरी साँसे भी बुझां दे
और ये सुराख
हमेशा हमेशा के लिए
बंद हो जाएँ....!!'
शब्दों को मरते देखा है
शब्दों को मरते देखा है.......
दहाडों को डरते देखा है,
वसंत को झरते देखा है
अपने ह्रदय के एक कोने में,
हमने शब्दों को मरते देखा है।
रफ्तारों को थकते देखा है,
कलमों को रुकते देखा है,
अपनी आंखों के किनारों से
हमने शब्दों को बहते देखा है।
आधारों को ढहते देखा है,
तूफानों को भी, सहते देखा है,
रातों में उठ उठ कर,
हमने शब्दों को टहलते देखा है।
राहों को चलते देखा है,
साँसों को थमते देखा है,
अपनी बर्फीली सोंचों में भी,
हमने शब्दों को जलते देखा है।
भँवरे को कलियाँ, मसलते देखा है,
'करीब' को फासलों में बदलते देखा है,
अपने मन के रेगिस्तानों में भी,
हमने शब्दों को चरते देखा है।
आत्मा को भी मरते देखा है,
इश्वर को भी डरते देखा है,
हाँ! मेरी कोख में भी कभी शब्द हुआ करते थे,
मैंने इक इक करके, सबको मरते देखा है।
वसंत को झरते देखा है
अपने ह्रदय के एक कोने में,
हमने शब्दों को मरते देखा है।
रफ्तारों को थकते देखा है,
कलमों को रुकते देखा है,
अपनी आंखों के किनारों से
हमने शब्दों को बहते देखा है।
आधारों को ढहते देखा है,
तूफानों को भी, सहते देखा है,
रातों में उठ उठ कर,
हमने शब्दों को टहलते देखा है।
राहों को चलते देखा है,
साँसों को थमते देखा है,
अपनी बर्फीली सोंचों में भी,
हमने शब्दों को जलते देखा है।
भँवरे को कलियाँ, मसलते देखा है,
'करीब' को फासलों में बदलते देखा है,
अपने मन के रेगिस्तानों में भी,
हमने शब्दों को चरते देखा है।
आत्मा को भी मरते देखा है,
इश्वर को भी डरते देखा है,
हाँ! मेरी कोख में भी कभी शब्द हुआ करते थे,
मैंने इक इक करके, सबको मरते देखा है।
वो चाँद चखाने वाली
अबे ओ सुन बे गरीब,
क्यों रोज़ यहाँ तू आता है,
चाँद ताकता है बेफिक्री से,
फुटपाथ पर बैठ कर फिर ,
बीङी सुलगाता है,
बता तो ज़रा,
कितना कमाता है
कि बेफिक्री खरीद लाता है|
बोला वो गरीब,
बेफिक्री पँहुचाने रोज़ ,
चाँद मेरी झोंपङी तक आता है,
रख लेती है एक बर्तन में,
चाँद को फिर मेरी औरत|
चम्मच में भरकर कभी,
थाली में परोसती है चाँद मेरी औरत|
बूढी माँ को दवा की शीशी में,
चांद भर कर देती है मेरी औरत|
बच्चो को खेलने के लिये,
चाँद खिलौना ला देती है मेरी औरत|
छोटे-छोटे टुकङों में चाँद को काटकर,
कितनी ही टाफियाँ बना देती है मेरी औरत|
कभी-कभी बोतल में भरकर,
चाँद को नशीला बना देती है मेरी औरत|
रोज़ मेरे खाली बटुए में,
एक चमकता चाँद रख देती है मेरी औरत|
थकी हुई आँखों में नींद बुलाने को,
दो बूंद चाँद आँख में डाल देती है मेरी औरत |
बूढे हो चले मेरे चेहरे को,
चाँद कह्ती है पगली सी मेरी औरत|
जो पूछा मैने फिर,
है कहाँ,
दिखती नही चाँद चखाने वाली तुम्हारी औरत|
वो हँसा और इशारा कर बोला,
लाल गाङी वाले उस बंगले में,
तवे पर चाँद सेकने गयी है मेरी औरत|
उस बङे घर के बङे और बच्चों को,
थाली में चाँद परोसने गयी है मेरी औरत|
उस घर में बेफिक्री घुटती है,
खुली हवा में दिलाने को साँस,
उसे साथ ले आयेगी मेरी औरत|
चाँद ताकता है बेफिक्री से,
फुटपाथ पर बैठ कर फिर ,
बीङी सुलगाता है,
बता तो ज़रा,
कितना कमाता है
कि बेफिक्री खरीद लाता है|
बोला वो गरीब,
बेफिक्री पँहुचाने रोज़ ,
चाँद मेरी झोंपङी तक आता है,
रख लेती है एक बर्तन में,
चाँद को फिर मेरी औरत|
चम्मच में भरकर कभी,
थाली में परोसती है चाँद मेरी औरत|
बूढी माँ को दवा की शीशी में,
चांद भर कर देती है मेरी औरत|
बच्चो को खेलने के लिये,
चाँद खिलौना ला देती है मेरी औरत|
छोटे-छोटे टुकङों में चाँद को काटकर,
कितनी ही टाफियाँ बना देती है मेरी औरत|
कभी-कभी बोतल में भरकर,
चाँद को नशीला बना देती है मेरी औरत|
रोज़ मेरे खाली बटुए में,
एक चमकता चाँद रख देती है मेरी औरत|
थकी हुई आँखों में नींद बुलाने को,
दो बूंद चाँद आँख में डाल देती है मेरी औरत |
बूढे हो चले मेरे चेहरे को,
चाँद कह्ती है पगली सी मेरी औरत|
जो पूछा मैने फिर,
है कहाँ,
दिखती नही चाँद चखाने वाली तुम्हारी औरत|
वो हँसा और इशारा कर बोला,
लाल गाङी वाले उस बंगले में,
तवे पर चाँद सेकने गयी है मेरी औरत|
उस बङे घर के बङे और बच्चों को,
थाली में चाँद परोसने गयी है मेरी औरत|
उस घर में बेफिक्री घुटती है,
खुली हवा में दिलाने को साँस,
उसे साथ ले आयेगी मेरी औरत|
मैं कुछ और हू....ये तो नहीं
मैं कुछ और हू....ये तो नहीं
मैं कुछ और हू
ये तो नहीं
मुझमे हैं
उजाला भी
अँधेरा भी
मैं हु
गलत भी
सही भी
तुम सोचोगे
में भी तुम्हारी तरह
इंसान हू
पर..में कुछ और हू
ये तो नहीं
उस उजाले के
साए में
जो अँधेरा पनपे
उस सही में
तुझको जो गलत
दिखाई दे
उस हर एक गलत्
के साथ हर रोज
वो मैं हू
मैं कुछ और हू
ये तो नहीं.....
ये तो नहीं
मुझमे हैं
उजाला भी
अँधेरा भी
मैं हु
गलत भी
सही भी
तुम सोचोगे
में भी तुम्हारी तरह
इंसान हू
पर..में कुछ और हू
ये तो नहीं
उस उजाले के
साए में
जो अँधेरा पनपे
उस सही में
तुझको जो गलत
दिखाई दे
उस हर एक गलत्
के साथ हर रोज
वो मैं हू
मैं कुछ और हू
ये तो नहीं.....
मैं कौन हूँ
मैं कौन हूँ !!
दरख्तओ ने पूछा फूलो से , कौन हो तुम
फूल बस मुस्कुराते रहे, और उन्हें आता भी क्या है
सागर ने पूछा नदिया से, कौन हो तुम
नदी आकर मिल गई सागर में, और जाती भी कहा पर
मीनार पूछती है नींव के पत्थर से , कौन हो तुम
वो और नीचे को धसक गया , और बेचारा जाता भी कहा पर
सावन पूछता है बादल से , कौन हो तुम
बादल चला गया बरस कर, सावन को नही पता उसे किसने भिगोया
पतंग पूछती हैं मांझे से , क्यो पीछे पड़े हो मेरे
वो तो आसमान में पहुच गई हवा से बात करते करते
मैं पूछ बैठा मुझसे कि मैं कौन हूँ
आइना तोड के में सोने चला गया.
फूल बस मुस्कुराते रहे, और उन्हें आता भी क्या है
सागर ने पूछा नदिया से, कौन हो तुम
नदी आकर मिल गई सागर में, और जाती भी कहा पर
मीनार पूछती है नींव के पत्थर से , कौन हो तुम
वो और नीचे को धसक गया , और बेचारा जाता भी कहा पर
सावन पूछता है बादल से , कौन हो तुम
बादल चला गया बरस कर, सावन को नही पता उसे किसने भिगोया
पतंग पूछती हैं मांझे से , क्यो पीछे पड़े हो मेरे
वो तो आसमान में पहुच गई हवा से बात करते करते
मैं पूछ बैठा मुझसे कि मैं कौन हूँ
आइना तोड के में सोने चला गया.
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