सुराख़
मेरी छत की दीवार पर
दो सुराख़ हैं.
जाने कितनी दफा
भर चुकी हूँ इन्हें,
पर हर बरस,
बरसात में,
उघड ही जाते हैं
और इनसे रीसता पानी
वक़्त-बेवक्त टपक
रुसवा कर जाता है,
सरेआम!
शुक्र है, ये बरसात
बारहों- मास् नहीं रहती!
पर इन दो सुराखों का क्या करुँ?
कैसे भरूँ इन्हें,
के तेरे दर्द की
नुमाइश ना हो?
इस ओर तो
मौसम भी नहीं बदलता!
और बदले भी कहाँ से?
मेरा तो आफताब भी
तू ही था.
तेरे बाद अब
किसके लगाऊं फेरें,
के दिन फिरें...?
'कुछ बदलेगा'
ये उम्मीद भी अब
बुझ चुकी.
बाकी है...तो बस,
यही दुआ
के 'अब के बरस
ये बरसात
मेरी साँसे भी बुझां दे
और ये सुराख
हमेशा हमेशा के लिए
बंद हो जाएँ....!!'
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment